अलंकार शब्द ‘अलम’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है आभूषण.
काव्य की शोभा बढाने वाले तत्वों को अलंकार कहते है.
काव्य की शोभा बढाने वाले तत्वों को अलंकार कहते है.
अलंकार
- 1. शब्दालंकार
- 2. अर्थालंकार
- 3. उभयालंकार
- 4. पाश्चात्य अलंकार
1. शब्दालंकार
जहाँ शब्दों के द्वारा चमत्कार उत्पन्न होता है, वहां शब्दालंकार होता है.
शब्दालंकार के निम्न भेद है-
A. अनुप्रास अलंकार :- जिस रचना में व्यंजन वर्णों की बार-बार आवृत्ति के कारण चमत्कार उत्पन्न हो, वहां अनुप्रास अलंकार होता है.
कर कानन कुंडल मोर पखा,
उर पै बनमाल बिराजती है।
अनुप्रास अलंकार के भेद-
a. छेकानुप्रास :- जहाँ एक या अनेक व्यंजन वर्णों की आवृत्ति केवल 2 बार हो–
उसकी मधुर मुसकान किसके ह्रदय तल में नहीं बसी.
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥
b. वृत्यानुप्रास :- जहाँ एक या अनेक व्यंजन वर्णों की आवृत्ति दो से अधिक बार हो–
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
यहाँ ‘त’ व्यंजन की आवृत्ति दो से अधिक बार हुई है.
c. श्रुत्यानुप्रास :- जहाँ एक ही व्यंजन ही नहीं किन्तु समान उच्चारण स्थान/ध्वनि वाले व्यंजन बार-बार आये
तुलसीदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई।
यहाँ ‘त’, ‘ल’, ‘द’, ‘स’ का उच्चारण स्थान 'दन्त्य' है.
d. अन्त्यानुप्रास :- जहाँ छंद के चरणों के अंत में समान वर्णों की आवृत्ति हो–
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन।
नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
यहाँ चरणों के अंत में ‘अंजन’ की आवृत्ति हुई है.
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥
यहाँ चरणों के अंत में ‘आगर’ की आवृत्ति हुई है.
e. लाटानुप्रास :- जहाँ सामान शब्द समूह की आवृत्ति हो लेकिन किसी शब्द, यति, आदि द्वारा अर्थ में अंतर हो–
पूत कपूत, तो क्यों धन संचय,
पूत सपूत, तो क्यों धन संचय।
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय,
या खाए बौराए जग, वा पाए बौराए।
यहाँ ‘कनक’ शब्द दो बार आया है किन्तु पहले ‘कनक’ का अर्थ ‘सोना’ तथा दुसरे ‘कनक’ का अर्थ ‘धतूरा’ है.
तीन बेर खाती, वो अब तीन बेर खाती है.
यहाँ ‘बेर’ के दो अर्थ है – ‘वक्त’ और ‘फल’.
C. श्लेष अलंकार :- जहाँ कोई शब्द एक ही बार प्रयोग हो किन्तु उसके अनेक अर्थ हो वहां श्लेष अलंकार होता है.
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥
यहाँ ‘पानी’ के तीन अर्थ है – ‘चमक’, ‘प्रतिष्ठा’ और ‘जल’.
D. वक्रोक्ति अलंकार :- जहाँ कोई बात किसी आशय से कही जाय और सुनने वाला उसका भिन्न अर्थ लगा दे वहाँ वक्रोक्ति अलंकार कहते है.
वक्रोक्ति अलंकर के भेद :-
a. श्लेष वक्रोक्ति :- इस अलंकार में स्रोता जानबूझ कर वक्ता के कथन का दूसरा अर्थ निकालता है.
को तुम हो इत आये कहाँ ? घनश्याम हौँ, तौ कितहू बरसो।
चितचोर कहावत हैँ हम तो ! तँह जाहु जहाँ धन है सरसो।
यहाँ ‘घनश्याम’ का अर्थ ‘कृष्ण’ है लेकिन राधा इसका अन्य अर्थ जानबूझ कर ‘काले बादल’ समझती है.
b. काकु वक्रोक्ति :- काकु वक्रोक्ति में वक्ता कहता कुछ और है किन्तु कंठ की आवाज के कारण स्रोता सुनता कुछ और है–
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।
तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥
E. पुनरुक्ति प्रकाश :- इस अलंकार में कथन की सौंदर्य के लिए एक ही शब्द की आवृत्ति होती है–
ठौर-ठौर विहार करती सुंदरी सुर नारियां.
F. पुनरुक्तिवदाभास :- जहाँ कथन में पुनरुक्ति का आभास होता है, वहाँ पुनरुक्तिवदाभास अलंकार होता है.
पुनि फिरि राम निकट सो आई.
G. विप्सा :- जहाँ किसी कथन में अत्यंत आदर के साथ एक ही शब्द की अनेक बार आवृत्ति होती है वहां विप्सा अलंकार होता है–
हाँ! हाँ! इन्हें रोक टोक ना लगाओ तुम.
2. अर्थालंकार
जब किसी रचना में शब्दों के अर्थो द्वारा चमत्कार उत्पन्न होता है वहां अर्थालंकार होता है.
A. उपमा अलंकार :- जहाँ पर किसी वस्तु की तुलना किसी प्रसिद्ध वस्तु से की जाती है वहाँ उपमा अलंकार होता है.
* जहाँ उपमेय में उपमान की समानता की संभावना व्यक्त की जाती है.
उपमा के चार अंग होते है –
उपमेय :- जिसका वर्णन करना होता है उसे उपमेय कहते है इसे ‘प्रस्तुत’ या ‘वर्णनीय’ भी कहते है.
राधा का मुख चंद्रमा के समान सुन्दर है.
यहाँ ‘राधा का मुख’ उपमेय है.
उपमान :- वर्णनीय वस्तु की जिस प्रसिद्ध वस्तु के साथ समानता दिखाई जाती है, उसे उपमान कहते है.
उपर्युक्त वाक्य में मुख की समानता ‘चंद्रमा’ से की गयी है अतः ‘चंद्रमा’ उपमान है.
साधारण धर्म :- उपमेय और उपमान दोनों में निहित जिस गुण के आधार पर समानता दिखाई जाती है उसे साधारण धर्म कहते है.
उपर्युक्त वाक्य में ‘सुन्दर’ साधारण धर्म है.
वाचक शब्द :- जिस शब्द के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता सूचित की जाती है उसे उपमा का ‘वाचक शब्द’ कहते है.
जैसे : समान, सम, सदृश, समतुल्य आदि.
उपमा अलंकार के भेद :-
a. पुर्णोपमा :- जहाँ उपमा के चारो अंग विद्यमान हो वहां पुर्णोपमा अलंकार होता है.
जनक वचन छुये बिरवा लजारू के से,
वीर रहे सकल सकुचि सिर नाथ के.
उपमेय – वीर, उपमान – लजारू के बिरवा, साधारण धर्म – सिर नवाना, वाचक शब्द – के से.
b. लुप्तोपमा :- जहाँ उपमा के एक या अनेक अंगो का आभाव हो वहां लुप्तोपमा अलंकार होता है.
नीवरता सी शिला चरण से टकराता फिरता पवमान.
c. मालोपमा :- जिस कथन में एक ही उपमेय के अनेक उपमान हो, उसे ‘मालोपमा’ कहते है.
चन्द्रमा-सा कान्तिमय, मृदु कमल-सा कोमल महा कुसुम-सा हँसता हुआ, प्राणेश्वरी का मुख रहा।
उपमेय – प्राणेश्वरी, उपमान – चन्द्रमा, कमल, कुसुम.
B. रूपक अलंकार :- जहाँ उपमेय में उपमान का भेद दिखलाया जाय वहां रूपक अलंकार होता है, इसमें रूपी शब्द छिपा रहता है.
* उपमेय उपमान में अभेद.
*उपमेय का निषेध करके उपमान का आरोप किया जाय.
चरण कमल बंदौ हरिराई.
यहाँ ‘हरी के चरण’ (उपमेय) में ‘कमल’ (उपमान) का आरोप है.
अन्य उदहारण :
उदित उदय गिरि मंच पर ,रघुवर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज सब ,हरषे लोचन भृंग॥
बीती विभावरी जाग री!
अम्बर पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी।
C. उत्प्रेक्षा अलंकार :- जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना या कल्पना की जाय वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है. इसमे ‘जनु-जानो’, ‘मनु-मानो’, ‘इव’ जैसे वाचक शब्दों का प्रयोग होता है.
सोहत ओढ़े पीत पट, श्याम सलोने गात।
मानो नीलमणि शैल पर, आतप परयो प्रभात।।
उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद :-
a. वस्तुत्प्रेक्षा :- जहाँ उपमेय रूप वस्तु में उपमान रूप वस्तु की संभावना की जाय वहाँ वस्तुत्प्रेक्षा अलंकार होता है.
उस काल मारे क्रोध के तन कांपने उसका लगा,
मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा।
यहाँ उपमेय ‘क्रोध’ में उपमान ‘हवा के वेग’ की तथा उपमेय ‘तनु’ में उपमान ‘सागर’ की संभावना की गयी है.
b. हेतूत्प्रेक्षा :- जहाँ हेतु के न होने पर भी हेतु की संभावना की जाय–
पायी अपूर्व थिरता मृदु वायु ने भी,
मानो अंचल विमोहित हो बनी थी।
यहाँ वायु के अचंचल होने के हेतु (कारण) की संभावना की गयी है की वह विमोहित हो गयी परन्तु निर्जीव वायु विमोहित हो ही नहीं सकती है.
c. फलोत्प्रेक्षा :- जहाँ किसी फल (प्रयोजन) की संभावना की जाय वहाँ फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है.
नित्य ही नहाता क्षीर सिन्धु में कलाधर है,
सुन्दर तवानन की समता की इच्छा से।
D. भ्रांतिमान अलंकार :- जहाँ समानता के कारण एक ही वस्तु में किसी दूसरी वस्तु का भ्रम हो, वहां भ्रांतिमान अलंकर होता है.
बिल विचार कर नाग शुँड में, घुसने लगा विषैला साँप।
काली ईख समझ विषधर को, उठा लिया हाथी ने आप।।
E. संदेह अलंकार :- जहाँ उपमेय और उपमान दोनों में समानता देखकर यह निश्चित नहीं हो पाता है की कौन उपमेय है और कौन उपमान वहाँ संदेह अलंकार होता है.
मद - भरे ये नलिन - नयन मलीन हैं;
अल्प - जल में या विकल लघु मीन हैं?
यहाँ उपमेय ‘नयन’ और उपमान ‘मीन’ है परन्तु यह निश्चित नहीं हो पा रहा है की ये नयन है अथवा मीन.
F. दृष्टान्त अलंकार :- जहाँ उपमेय और उपमान सम्बन्धी दो अगल-अलग वाक्य हो अर्थात् एक वाक्य में जो बात कही गयी हो उसे पुष्ट करने के लिए कोई अधिक सत्य बात कहकर समानता दिखाई गयी हो अथवा जहाँ बिम्ब – प्रतिबिम्ब का भाव दिखाया गया हो वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है.
रहिमन अँसुवा नयन ढरि, जिय दु:ख प्रकट करेइ।
जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि देइ॥
G. अतिशयोक्ति अलंकार :- जहाँ किसी व्यक्ति या वस्तु की अत्यंत प्रशंसा के लिए बात इतनी बढ़ा-चढ़ा कर कही जाय की वह संसार में संभव न हो, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है.
हनुमान की पूंछ में, लगन न पाई आग।
लंका सिकरी जल गई गए, गए निशाचर भाग।
H. विभावना :- विभावना का अर्थ है – विशेष प्रकार की कल्पना.
जहाँ बिना कारण के ही कार्य हो जाये वहाँ विभावना अलंकार होता है.
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।
कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
I. अन्योक्ति अलंकार :- जहाँ अप्रस्तुत के द्वारा प्रस्तुत का व्यंगात्मक कथन किया जाय वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है.
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।
अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।
J. विरोधाभास अलंकार :- जहाँ वास्तविक विरोध न होने पर भी विरोध का आभास हो वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है.
या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यौं-ज्यौं बूड़ै स्याम रँग त्यौं-त्यौं उज्जल होइ॥
3. मानवीकरण
जहाँ अमूर्त भावो को मानव के रूप में चित्रित किया जाय वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है.
दिवसावसान का समय- मेघमय आसमान से उतर रही है,
वह संध्या-सुन्दरी, परी सी, धीरे, धीरे, धीरे।