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हिन्दी-शिक्षण

भाषा का अर्थ, भाषा कौशल, हिंदी भाषा शिक्षण की विभिन्न विधियाँ, प्रत्यक्ष विधि, पारंपरिक विधि, पाठ्यपुस्तक विधि, सम्प्रेषणात्मक विधि, आगमन-निगमन विधि, श्रव्य-भाषिक विधि...


हिन्दी - शिक्षण

भाषा का अर्थ :- भाषा मनुष्य की वह प्राकृतिक क्षमता है, जिसके बल पर वह ध्वनि प्रतीकों की रचना करता है. इन्ही प्रतीकों का उपयोग अभिव्यक्ति हेतु किया जाता है. भाषा के अस्तित्व में आने का पहला कदम ध्वनि प्रतीकों की रचना ही है.

गृह भाषा एवं विद्यालय की भाषा :- भाषा के बारे में हमारी प्रचलित समझ यह है की घर की भाषा और विद्यालय की भाषा में पर्याप्त दूरी. होनी चाहिए क्योंकि घर की भाषा में व्याकरणिक नियमों की अवहेलना होती है. जबकि सच ठीक इसके उल्टा है, बच्चे विद्यालय में आने से पहले जिस भाषा को जानते है उनका बेहतर कक्षायी उपयोग संभव है. बहुभाषिकता का सम्बन्ध ऐसी ही परिस्थितियों से है.

NCF 2005 के अनुसार घर की भाषा और विद्यालय की भाषा का संवाद अनेक शैक्षिक उपलब्धियों का कारक बन सकता है.

भाषा सम्बन्धी महत्वपूर्ण तथ्य -

1. भाषा एक नियमबद्ध व्यवस्था है.
2. भाषा का प्रभाव जटिल से सरल की ओर होता है.
3. भाषा के अध्ययन में मुख्य तत्त्व उच्चारण की स्पष्टता है.

   भाषा कौशल :   

  • 1. श्रवण कौशल (सुनना)
  • 2. मौखिक कौशल (बोलना)
  • 3. पठन/वाचन कौशल (पढ़ना)
  • 4. लेखन कौशल (लिखना)

1. श्रवण कौशल :-
  • भाषा कौशलो में यह सबसे महत्वपूर्ण है.
  • भाषा शिक्षा के सन्दर्भ में श्रवण का अर्थ सुनकर भाव ग्रहण करना है.
  • श्रवण एक मानसिक प्रक्रिया है.

2. मौखिक कौशल :- अपने भावो और विचारो को प्रभावी ढंग से सार्थक शब्दों में बोलकर व्यक्त करने को मौखिक अभिव्यक्ति कहते है.

मौखिक अभिव्यक्ति के 5 पक्ष होते है-
  • i. शुद्ध उच्चारण
  • ii. निस्संकोच भावाभिव्यक्ति
  • iii. उचित गति, बलाघात तथा अनुतान
  • iv. उचित हाव-भाव
  • v. विचारो में क्रमबद्धता

मौखिक अभिव्यक्ति के 2 रूप है-
  • i. औपचारिक
  • ii. अनौपचारिक

3.  पठन कौशल :- पठन कौशल और योग्यता दोनों है.

पठन कौशल के प्रकार :-
  • i. सस्वर वाचन
  • ii. मौन वाचन

4. लेखन कौशल :- लेखन 3 प्रकार के होते है-

i. सुलेख :- सुंदर लिखावट को सुलेख कहते है.

ii. अनुलेख :- अनुलेख का अर्थ है – किसी लिखावट के पीछे या बाद में लिखना, अनुलेख के लिए अभ्यास पुस्तिका की प्रथम पंक्ति में कुछ शब्द लिखे होते है छात्र इन छपे हुए अक्षरों को देखकर स्वयं अक्षर बनाता है.

iii. श्रुतलेख :- इस विधि में अध्यापक बोलता जाता है और छात्र सुनकर अभ्यास पुस्तिका पर लिखता जाता है.
इसमें सुन्दर लिखावट का महत्व नहीं है केवल भाषा में शुद्धता होनी चाहिए.

   हिंदी भाषा शिक्षण की विभिन्न विधियाँ :   

A. प्रत्यक्ष विधि
B. पारंपरिक विधि
C. पाठ्यपुस्तक विधि
D. सम्प्रेषणात्मक विधि
E. आगमन-निगमन विधि
F. श्रव्य-भाषिक विधि

A. प्रत्यक्ष विधि :- इस विधि के अनुसार लक्ष्य भाषा को प्रत्यक्ष रूप से उसी भाषा के द्वारा सिखाना चाहिए. इस विधि का मुख्य लक्ष्य है की मातृभाषा का प्रयोग किये बिना, अनुवाद की सहायता के बिना ही अध्येय भाषा के माध्यम से ही अध्येय भाषा को सिखाना उचित है. इसमे मातृभाषा का प्रयोग नहीं किया जाता है.

प्रत्यक्ष विधि की विशेषताएं -

1. अध्येय भाषा के शिक्षण में अध्येय भाषा का ही प्रयोग किया जाता है मातृभाषा के अनुवाद की सहायता नहीं ली जाती है.

2. इसमे शब्दों या वाक्यों का अर्थ प्रत्यक्ष वस्तुओ, सन्दर्भ पर आधारित होता है. अध्येय भाषा का श्रवण तथा उच्चारण द्वारा छात्र में अन्य भाषा की आदत विकसित होती है.

3. इसमे व्याकरणिक नियमो को कंठस्थ करने तथा अनुवाद करने पर बल नहीं दिया जाता है.

4. इस विधि में अध्येय भाषा के वास्तविक प्रयोग पर बल दिया जाता है.

5. इस विधि में प्रत्यक्ष वस्तुओं, प्रतिरूपों, चित्रों और रेखाचित्रो की सहायता से अर्थ की जानकारी करायी जाती है आवश्यकतानुसार अभिनय तथा अनुकरण की भी सहायता ली जाती है.

6. इस विधि की मुख्य विशेषता यह है की इसमे अध्येय भाषा के शब्दों, वाक्यांशों तथा वाक्यों के सहज प्रयोग का अभ्यास कराया जाता है. प्रारंभ में अध्यापक द्वारा प्रयुक्त वाक्यों का छात्र अनुकरण करता है और आगे चलकर प्रत्यक्ष वस्तुओं तथा प्रत्यक्ष सन्दर्भ की सहायता भाषा का प्रयोग करना सीख लेता है.

प्रत्यक्ष विधि की सीमाएं –

1. छात्रो के केवल अध्येय भाषा के माध्यम से भाषा सिखाने में तथा मातृभाषा के प्रयोग का पूर्ण रूप से निषेध करने के कारण अधिगम सम्बन्धी कठिनाई उत्पन्न होती है.

2. इस विधि में छात्रो को स्वयं-नियम निर्धारण करना पड़ता है. सामान्य योग्यता रखने वाले छात्र नियम निर्धारण में तथा सामान्यीकरण में असमर्थ रहते है.

3. यह विधि शिक्षक के कुशलता पर निर्भर करता है और सभी शिक्षक समान रूप से कुशल नहीं होते है.

4. मातृभाषा के प्रयोग को नियंत्रित कर देने से भाषा अधिगम की प्रगति मंद हो सकती है.

B. पारंपरिक विधि :- शिक्षण के क्षेत्र में यह विधि सबसे प्राचीन मानी जाती है. इस विधि को व्याकरण-अनुवाद विधि के नाम से भी जाना जाता है. यह विधि तत्वों पर विशेष बल देती है- व्याकरण और अनुवाद.
इस विधि का उद्देश्य छात्रो में अध्येय भाषा के व्याकरण की विशेषताओं को याद करने की योग्यता का विकास करना है जिससे वे अध्येय भाषा को व्याकरण नियमो के अनुसार शुद्ध एवं सही रूप से लिखने की कुशलता विकसित कर सके.

पारंपरिक विधि की विशेषताएं-

1. इस विधि में छात्रो का पूरा ध्यान व्याकरणिक सिद्धांतो पर केन्द्रित रहता है.

2. इस विधि में मातृभाषा का अनुवाद कराया जाता है और यह जानने का प्रयास किया जाता है कि छात्र ने व्याकरणिक नियमो पर पर्याप्त अधिकार पा लिया है या नहीं.

3. इस विधि में शिक्षण का माध्यम मुख्यतः अनुवाद है.

4. अनुवाद कार्य में सहायता देने के लिए अध्येय भाषा के नवीन शब्दों के अर्थ की सूची दे दी जाती है और छात्रो से अपेक्षा की जाती है की वे इन शब्दों को याद कर ले.

पारंपरिक विधि की सीमाएं-

1. इस विधि में भाषा के उच्चारण पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है.

2. इस विधि द्वारा भाषीय कुशलता का विकास नहीं होता है.

3. इस द्वारा विधि अध्येय भाषा शिक्षण का उद्देश्य पूरा नहीं होता.

4. भाषा शिक्षण में छात्र निष्क्रिय स्रोता के रूप में होते है पाठ के विकास में उनका कोई सक्रिय योगदान नहीं होता.

C. पाठ्यपुस्तक विधि :- यह बहुधा निगमन प्रणाली से मिलता-जुलता है अतः इसमे भी नियमो पर बहुत बल दिया जाता है, इस विधि में व्याकरण शिक्षण का आधार एक पुस्तक होती है जिसमे व्याकरण के नियम और उदाहरण दिए होते है. इन्ही को आधार मानकर अध्यापक कक्षा में छात्रो को व्याकरण ज्ञान कराता है.

D. सम्प्रेषणात्मक विधि :- यह उपागम बातचीत को साधन और अंतिम लक्ष्य दोनों मानती है.
कार्य-आधारित भाषा अधिगम (Task-based language learning : TBLL), कार्य-आधारित भाषा शिक्षण (Task based language teaching : TBLT) या कार्य आधारित अनुदेशन (Task-based instruction : TBI) के रूप में पहचाने जाने वाली इस विधि के लोकप्रियता में तेजी से वृद्धि हुई है.
यह विधि छात्रो की सम्प्रेषण क्षमता और भाषा व्यवहार में अर्थसिद्धि पर अधिक बल देती है.

E. आगमन-निगमन विधि :- यह विधि व्याकरण शिक्षण की सबसे प्राचीन विधि मानी जाती है.
आगमन विधि में जहाँ व्याकरण के नियमो को प्रत्यक्ष न बताकर उदाहरण द्वारा छात्रो से उन नियमो की खोज करायी जाती है. व्याकरण जैसे विषय को आगमन विधि से अत्यंत रोचक बनाया जा सकता है.
वहीं निगमन विधि में छात्रो को पहले व्याकरण सम्बन्धी ज्ञान दिया जाता है फिर उदहारण बताया जाता है.

F. श्रव्य-भाषिक विधि :- इस विधि को संरचना विधि के नाम से भी जाना जाता है. द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ने वाले सैनिको को अन्य भाषा सिखाने के लिए इस विधि का प्रयोग किया गया था. इस विधि में भाषाई संरचना के सुनिश्चित अभ्यास पर बल दिया गया और इसे भाषा सिखने का मूल आधार माना गया.

संरचना विधि की मान्यताएं –

1. भाषा का लिखित रूप भाषा का वास्तविक परिचय नहीं है. मौखिक भाषा ही पूर्ण भाषा है अतः भाषाई कुशलता के विकास में इस तथ्य पर ध्यान केन्द्रित करना आवश्यक है.

2. भाषा आदतों का समूह है.

3. प्रत्येक भाषा दूसरी भाषा से भिन्न होती है. किन्ही दो भाषाओ में पूर्णतया समानता नहीं होती है.

संरचना विधि की विशेषताएं –

1. इस विधि में भाषा का उच्चरित रूप अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, अभ्यास और प्रयोगों से छात्र में कुशलता उत्पन्न होती है.

2. पाठ का आरंभ वाक्य संरचना से होता है शब्दावली तथा ध्वनियों का अलग से अभ्यास नहीं कराया जाता है.

3. इस विधि के द्वारा वाचन के शिक्षण में सर्वप्रथम वहीं सामग्री छात्र के सामने प्रस्तुत जिसे उसने मौखिक रूप से सीख लिया है.

4. इस विधि में अध्येय भाषा की व्याकरणिक तथ्यों की जानकारी सिद्धांत के रूप में नहीं दी जाती है बल्कि वाक्य-संरचनाओ का मौखिक प्रयोग करते-करते छात्र व्याकरणिक तथ्यों को आत्मसात कर लेते है.

संरचना विधि की सीमाएं –

1. यह एक यांत्रिक विधि है.

2. इस विधि की सफलता मुख्यता सांचा निर्माण पर आधारित है शिक्षण बिन्दुओं का चयन उनका समुचित अभ्यास सामग्री के आधार पर ही वाक्य संरचना का अभ्यास कराया जा सकता है.

3. इस विधि में छात्रो पर व्यक्तिगत ध्यान देना आवश्यक होता है.


          

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