ब्लूम के अनुसार गणित शिक्षण के उद्देश्य, प्राथिमक स्तर (Class 1-5) पर गणित शिक्षण के उद्देश्य, गणित शिक्षण में आवश्यक सामग्री, गणित शिक्षण की विभिन्न विधियाँ, बैंकिंग माडल, सीखना यानी प्रोग्रामिंग...
गणित - शिक्षण
गणित शिक्षण के उद्देश्य :
A. सामान्य उद्देश्य :- सामान्य उद्देश्यों को पूरी तरह प्राप्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि ये लक्ष्य में बड़े होते है. उनकी प्राप्ति विद्यालयों, समाज व राष्ट्र को आधार बनाकर की जाती है. ये इनके अभाव में प्राप्त नहीं किये जा सकते. लक्ष्य विद्यार्थी के आदर्श होते है जिनको ध्यान में रखकर ही विद्यार्थी अपने सही मार्ग या दिशा तक पहुंचता है.
B. विशिष्ट उद्देश्य :- विशिष्ट उद्देश्य वह माध्यम होते है जिनकी सहायता से उद्देश्यों या लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है. कोई भी व्यक्ति अपने अंतिम उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए, उस उद्देश्य से सम्बंधित क्रियाओं को क्रमबद्ध तरीके से लगाकर उसे पूरा करते है तथा विशिष्ट उद्देश्य तक पंहुचते है. इनकी प्राप्ति के लिए शिक्षक उत्तरदायी होता है.
ब्लूम के अनुसार गणित शिक्षण के उद्देश्य : सिखने के एक से अधिक प्रकार है जो निम्नवत 3 प्रकार के है-
i. संज्ञानात्मक-मानसिक कौशल (ज्ञान)
ii. भावात्मक-भावनात्मक क्षेत्र में विकास (मनोवृत्ति)
iii. क्रियात्मक-शारीरिक कौशल
i. संज्ञानात्मक : इसमें ज्ञान तथा बौद्धिक कौशलो का विकास शामिल है. इसमे विशेष तथ्यों का पुनर्स्मरण, ज्ञान, समझ-बूझ, अनुप्रयोग, विश्लेषण, संश्लेषण, मूल्यांकन आदि सम्मिलित है.
ब्लूम ने संज्ञानात्मक उद्देश्य क्षेत्र को 6 वर्गों में विभाजित किया है-
a. ज्ञान (Knowledge)
b. बोध (Comprehension)
c. प्रयोग (Application)
d. विश्लेषण (Analysis)
e. संश्लेषण (Synthesis)
f. मूल्यांकन (Evaluation)
ii. भावनात्मक : इसमें वे तरीके शामिल है जिनका हम भावनात्मक रूप से सामना करते है. इसमे भावनाएं, मूल्य, तारीफ, उत्साह, प्रेरणा व वृत्तियाँ शामिल है.
ब्लूम ने भावात्मक उद्देश्य क्षेत्र को 5 वर्गों में विभाजित किया है-
a. ग्रहण करना (Receiving)
b. अनुक्रिया (Responding)
c. अनुमूल्यन (Valuing)
d. व्यवस्था (Organization)
e. मूल्य समूह का विशेषीकरण (Characterization of a value complex)
iii. क्रियात्मक : इसमे वे तरीके शामिल है जिनसे छात्र प्रश्नों को हल करने का कौशल प्रदर्शित करते है. इसमें शारीरिक हलचल, समन्वय, समायोजन,आदत एवं मोटर-कौशल क्षेत्र शामिल है. क्रियात्मक पक्ष के प्रमुख स्तर निम्न है- 1. उद्दीपन, 2. कार्य करना, 3 नियंत्रण, 4. संयोजन, 5.स्वभावीकरण, 6. आदतों का निर्माण.
ब्लूम ने क्रियात्मक उद्देश्य क्षेत्र को 5 वर्गों में विभाजित किया है-
a. प्रत्यक्षीकरण (Perception)
b. व्यवस्था/मनोस्थिति (Set)
c. निर्देशात्मक अनुक्रिया (Guided Response)
d. कार्य प्रणाली (Mechanism)
e. जटिल प्रत्यक्ष अनुक्रिया (Complex overt Response)
प्राथिमक स्तर (Class 1-5) पर गणित शिक्षण के उद्देश्य :
इस अवस्था में बच्चो की समझ कम विकसित होती है वे प्रायः गलतियाँ कर के सीखते है, अतः प्रयास एवं त्रुटि के माध्यम से शिक्षा देना उपयुक्त माना जाता है. बच्चे उन सभी चीजो से सिखते है जिन्हें वे देखते है या अनुभव करते है. बच्चे अपने तरीके से सवाल हल करते है जिसे केवल दुसरे बच्चे ही समझ सकते है.
इस स्तर पर गणित शिक्षण के उद्देश्य निम्न है-
1. गणितीय अवधारणाओं को समझना, गणितीय भाषा का विकास.
2. गणित को बच्चो के जीवन से जोड़ना.
3. समस्या-समाधान तथा तर्क संगत विचारो को प्रोत्साहित करना.
4. बच्चों में संख्यात्मक कौशलो का विकास करना.
5. पैटर्न की पहचान करना और उन्हें पूरा करने के योग्य बनाना.
6. बच्चो की मानसिक शक्ति का विकास करना.
पूर्वमाध्यमिक स्तर (Class 6-8) पर गणित शिक्षण के उद्देश्य:
इस अवस्था में बच्चो की प्रकृति जिज्ञासु होती है वे अपने परिवेश के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए सदैव उत्सुक रहते है इसलिए उन्हें तथ्यों के संकलन एवं संगठनाओ द्वारा निष्कर्ष निकालने के लिए अधिक अवसर उपलब्ध कराये जाते है. इसके अलावा इस अवस्था में बालको में संवेदनशीलता 3अधिक होती है और इसी समय उनके संवेगो का सुदृढीकरण भी होता है इसलिए इस अवस्था में उनमे जिन अच्छी आदतों का निर्माण होता है वे जीवन पर्यंत बनी रहती है.
इस स्तर पर गणित शिक्षण के उद्देश्य निम्न है-
1. छात्रो को अनुप्रयोग तथा सामाजिक घटनाओ की व्याख्या करने के सुयोग्य बनाना.
2. गणितीय ज्ञान से प्रेरित तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकालने के लिए छात्रो को कुशल बनाना.
3. छात्रो को गणित का ज्ञान कराकर धारणा और तथ्य के अंतर का बोध कराना.
4. छात्रो को गणित का ज्ञान कराकर समानताओं एवं अंतर के आधार पर वर्गीकृत करने में निपुण बनाना.
5. छात्रो में ज्यामिति उपकरणों के प्रति रूचि उत्पन्न करना एवं उनके प्रयोग द्वारा उनमे रचनात्मक कौशल का विकास करना.
6. छात्रो में गणित के ज्ञान से स्वस्थ्य अभिवृत्तियों का विकास करना.
माध्यमिक स्तर (Class 9-10) पर गणित शिक्षण के उद्देश्य :
यह किशोरावस्था का काल होता है इस अवस्था में छात्रो का शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास बड़ी तीव्रता से होता है अतः इस स्तर पर गणित शिक्षण इस प्रकार किया जाय, जिससे छात्र गणित की विभिन्न समस्याओं को समझ सके, समस्याओं का सीमांकन कर सके, समस्या का हल खोजने के लिए सृजित ज्ञान के आधार पर परिकल्पना का निर्माण कर सके.
इस स्तर पर छात्रो की रुचियों एवं आवश्यकताओ के अनुरूप गणित शिक्षण के उद्देश्यों का निर्माण किया गया है-
1. छात्रो को गणित की शब्दावली, संकतो, प्रत्ययो, सिद्धांतो, संक्रियाओं आदि की जानकारी करना तथा समझने की योग्यता विकसित करना.
2. छात्रो में गणित सम्बन्धी आधारभूत कौशलो का विकास करना.
3. छात्रो में विश्लेषण, सोचने-समझने, कारण बताने तथा तर्क करने की योग्यताओं का विकास करना.
4. छात्रो में ध्यान केन्द्रित करने की योग्यता, आत्मनिर्भरता तथा खोजपूर्ण आदतों का विकास करना.
5. छात्रो में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना.
6. छात्रो को गणित का ज्ञान कराकर तकनीकी व्यवसायों के लिए तैयार करना.
गणित एवं संज्ञानात्मक विकास :
पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था :- इस अवस्था में बच्चे तार्किक क्रम में नहीं सोच पाते है. जैसे – इस अवस्था के बच्चे आयतन या वजन का संरक्षण नहीं कर पाते है वे सोचते है की पतले लम्बे गिलास से चौड़े छोटे गिलास में दूध डालने पर दूध की मात्रा कम हो जाती है. इस स्थिति में बच्चे तुलना का आधार लम्बाई को मानते है.
इस अवस्था में बच्चे पैटर्न में सोचते है और उन्हें आसानी से पहचान पाते है. वे दो वस्तुओ में छोटे बड़े का अंतर तो कर लेते है लेकिन संख्या ज्यादा होने पर समझ नहीं पाते है. वे घटनाओ को क्रमबद्ध नहीं कर पाते है.
इसलिए बच्चों के लिए कुछ ऐसे खेल तैयार किये जाते है जिनमे थोड़ी सी चीजे हो, पर उन्हें उन चीजो में कुछ और चीजे जोड़नी पड़े या निकालनी पड़े.
मूर्त संक्रियात्मक अवस्था :- इस उम्र में बच्चे यह समझ लेते है की वस्तुओं के एक समूह को यदि छोटे-छोटे उपसमूहो में बाँट दिया जाय तो भी उनकी संख्या या मात्रा संरक्षित रहती है. पियाजे के अनुसार चीजो का संरक्षण बच्चा मूर्त संक्रियात्मक अवस्था में पंहुचने के बाद ही कर पाता है. वे जोड़ना व घटाना सिख जाते है लेकिन वे अमूर्त स्तर पर नहीं सोच पाते है. उदाहरण : बच्चे 30 वस्तुओं को 3 लोगो में आसानी से बराबर-बराबर बाँट सकते है लेकिन 30 में 3 का भाग नहीं कर पाते है.
औपचारिक संक्रिया अवस्था :- इस अवस्था में बच्चे वस्तुओं या उनकी मात्रा दिखाने के लिए प्रतीकों या शब्दों का प्रयोग करते है. उनमे परिकल्पनात्मक कथनों को समझने, उनको इस्तेमाल करने और उनमे तर्क संगत संबंधो को खोजने की योग्यता भी आ जाती है. वे समानुपात, बीजगणित, चर जैसे अमूर्त अवधारणाओं को कुछ हद तक समझ लेते है.
गणितीय विचार कैसे विकसित होते है? गणितीय अवधारणाओं के स्वरूप के तीन पहलू होते है-
- 1. मूर्त से अमूर्त तक
- 2. विशिष्ट से व्यापक की ओर
- 3. सोपानक्रमिक संरचनाएं
1. मूर्त से अमूर्त तक :- सभी ज्ञान की तरह गणित भी हमारे ठोस अनुभवों से विकसित होता है – जैसे त्रिविमीय आकर में ‘गोलाई’ या गोल की संकल्पना. उदहारण के लिए हम अपने तरफ कई तरह की वस्तुएं देखते है और हम पाते है की उनमे से कुछ वस्तुएं जैसे : गेंद, संतरा, तरबूज, लड्डू में एक प्रकार की नियमितता है. और इस प्रकार हमारे दिमाग में ‘गोलाई’ की अवधारणा धीरे-धीरे विकसित होती है.
2. विशिष्ट से व्यापक की ओर :- इसमें हम किसी ऐसे गुण का चुनाव करते है जो गुण कई वस्तुओ में उपस्थित हो तथा एक विशिष्ट स्थिति को लेकर और ज्यादा स्थितियों को शामिल करने के लिए अवधारणा को व्यापक बनाते समय, हम विशिष्ट स्थिति के कुछ गुणों को छोड़ देते है और उन गुणों को चुनते है जो सभी वस्तुओं में है.
जैसे : यदि हम चतुर्भुज की अवधारणा बनाते है तो हम वर्ग, आयत, समलम्ब आदि को सम्मिलित करते है और वे गुण चुनते है जो सभी में पाया जाता है यानि ये सभी चार भुजाओं वाली बंद आकृति है और इस तरह हम एक व्यापक अवधारणा बनाते है की ‘चार भुजाओं से घिरी बंद आकृति को चतुर्भुज कहते है.
3. सोपानक्रमिक संरचनाएं :- जैसे-जैसे मूर्त वस्तुओं और पदार्थो से प्राप्त अमूर्त विचार व्यापक होते जाते है, वैसे-वैसे उनमे शामिल अवधारणाओं का भी विस्तार होता जाता है.
जैसे : संख्या पद्धति
a. मूर्त वस्तुओं को गिनने से हमें प्राकृत संख्याओं का समुच्चय प्राप्त होता है.
b. अगर प्राकृत संख्याओं के समुच्चय में हम शून्य को शामिल करें तो हमें पूर्ण संख्याओं का समुच्चय प्राप्त होता है.
c. पूर्ण संख्याओं के समुच्चय में ऋणात्मक संख्याओं को शामिल करें तो पूर्णांक संख्याओं का समुच्चय प्राप्त होता है.
निगमन तर्क :- वह तर्क जिसमे ज्ञात परिणामो, परिभाषाओं और निष्कर्ष के नियमो का प्रयोग किसी तथ्य को सिद्ध करने के लिए किया जाता है निगमन तर्क कहलाता है.
गणित की भाषा के प्रमुख अंग :
- 1. पद
- 2. प्रत्यय
- 3. सूत्र
- 4. सिद्धांत
- 5. चिन्ह
भाषा का विकास :- गणित का और भाषा सीखने का आपस में तीन अलग-अलग स्तरों पर सम्बन्ध है-
1. गणित को समझाने की भाषा :- जब शिक्षक कक्षा में गणित के अवधारणाए, सूत्र, संक्रियाएं, प्रक्रियाएं, प्रमेय समझाते है तो वे आम भाषा का प्रयोग करते है.
2. सवाल हल करने की भाषा :- हमारा गणित सिखने का प्रमुख लक्ष्य यह क्षमता विकसित करना होता है की हम दैनिक जीवन की समस्याओं को गणितीय सवालों में बदल सके और उसे हल कर सके. बच्चों में यह क्षमता मौखिक प्रश्नों द्वारा विकसित होती है.
3. गणित बतौर एक भाषा :- गणित खुद भी एक भाषा है. इसके अपने प्रतीक, शब्द और नियम है. गणित में आम भाषा के कुछ सामान्य शब्दों का भी उपयोग होता है लेकिन एक निश्चित गणितीय अर्थ के साथ. जैसे :- जोड़ना, घटाना, गुणा, भाग, घात आदि. इनका गणितीय अर्थ और आम बोलचाल में अलग-अलग अर्थ होता है-
सीखने की विधियाँ :
सीखना यानी रटना : बैंकिंग माडल :- यदि हम पहाड़ा सिखाने की विधि पर विचार करे तो हम देखते है की एक छात्र कक्षा में खड़ा होकर ‘2 एकम 2’ बोलता है और अन्य छात्र इसे दोहराते है. इस विधि को रटना कहते है. इस विधि में सिखने का मतलब मूलतः तथ्यों को याद करना और पूछे जाने पर फौरन बोल देना है अर्थात इस माडल में सीखने व रटने को एक ही बात माना गया है. इस माडल के तहत न सिर्फ पहाड़े बल्कि युक्लिड ज्यामिति के प्रमेयों के प्रूफ भी रटे होते है. सिखने वाले को प्रमेय और प्रूफ, चरण दर चरण दे दिए जायेंगे और उनसे कहा जायेगा की वे उन्हें बार-बार दोहराएँ. इस विधि को बैंकिंग माडल कहा जाता है. इस विधि में किसी बैंक की तरह याददाश्त में तथ्य रखे व निकाले जाते है. शिक्षक छात्रो के दिमागी बैक में ज्ञान जमा कर देते है और फिर छात्र जरुरत पड़ने पर इन्ही तथ्यों को निकाल लेते है.
सीखना यानी प्रोग्रामिंग :- इस विधि में सिखाने की लिए किसी विशेष विधि जिसे हम ट्रिक कह सकते है का प्रयोग किया जाता है. इस माडल के मुताबिक, सिखने का मतलब है निर्देशों की एक श्रंखला जिसे याद करके पालन करना होता है इसमे माना जाता है की सिखना टुकड़ो में होता है, थोडा-थोडा करके.
जैसे : जब दो से अंको वाले संख्याओं का जोड़ करना है तो सबसे पहले 3-4 कॉलम बना लेते है और इकाई, दहाई, सैकड़ा... वाले अंको को एक परस्पर सम्मुख लिख लेते है और हासिल को आगे बढ़ाते रहते है और इस प्रकार जोड़ना सिखाते है.
प्रोग्रामिंग माडल सिखने की वह प्रक्रिया है जिसमे बच्चो द्वारा प्रदर्शित क्षमताओं को अंतिम अपेक्षित व्यवहार तक ले जाया जाता है. इस प्रक्रिया को छोटे-छोटे टुकड़ो या उप चरणों में बांटा जाता है, प्रत्येक चरण में सीखने के एक कार्य को एक उत्प्रेरक के रूप में बनाया जाता है और उपयुक्त जवाबो के माध्यम से अभ्यास कराया जाता है.
सीखना यानी समझ का निर्माण :- सिखने की वह प्रक्रिया जिसमे सीखने वाले को एक सक्रिय कर्ता माना जाता है रचानावादी माडल कहलाता है. इस प्रक्रिया में बच्चे अपने आस-पास के लोगो व वातावरण के साथ संपर्क करके अपने समझ का निर्माण करते है. इस विधि में बच्चे अपने दिमाग पर जोर डालने तथा विभिन्न पहलुओं पर सोचने के लिए प्रेरित होते है.
विश्लेषण :- किसी प्रक्रिया को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटना और उन हिस्सों को समझकर पूरी प्रक्रिया को समझना.
संश्लेषण :- किसी प्रक्रिया के छोटे-छोटे हिस्सों को एक साथ रखकर प्रक्रिया को उसके पुरे रूप में समझना.
प्रतिवर्त्यता का सिद्धांत :- यदि किन्ही चीजो पर की जा रही क्रियाओं का क्रम ठीक उलट दिया जाय तो उलटे क्रम में की जा रही क्रियाएं उन चीजो को वापस मूल अवस्था में पहुंचा देती है.
जैसे : दो संख्याओं को जोड़ने से प्राप्त संख्या में से किसी एक संख्या को घटा देने पर पहली संख्या प्राप्त हो जाती है.
संरक्षण का सिद्धांत :- किसी भी चीज की मात्रा (गिनती, द्रव्यमान, द्रव) वही बनी रहती है भले ही उसकी जगह या आकार बदल दिया जाय.
जैसे : पानी को गिलास या बाल्टी में रखने पर उसकी मात्रा समान रहती है केवल आकार बदल जाता है.
गणित शिक्षण की विभिन्न विधियाँ :
1. प्रयोगशाला विधि :- इस विधि का प्रयोग छोटी कक्षाओं में ज्यामिती की प्रारंभिक अवधारणाओं को स्पष्ट करने में किया जाता है. यह विधि कर के सिखाने के सिद्धांत पर आधारित है.
उदहारण के लिए पाइथागोरस प्रमेय को सिद्ध करना.
NOTE : शिक्षण विधियों का अध्ययन करने के लिए यहाँ Click करें.
गणित शिक्षण में आवश्यक सामग्री :
1. अबेकस/गिनतारा (Abacus) :- यह एक चीनी संगणक है इसका प्रयोग संख्याओं को जोड़ने में किया जाता है. यह स्थानीय मान को भी स्पष्ट करता है तथा संख्याओं को पढ़ने में मदद करता है.
2. जिओबोर्ड (Geo-board) :- यह लकड़ी का बना एक स्थायी बोर्ड होता है जिसमे त्रिविमीय ज्यामितीय की उभरी हुई आकृति बनी होती है. जिसे देखकर छात्र त्रिविमीय आकृति को पहचानता है.
जैसे : घन में सतह, पृष्ठ, कोने और कोरो की संख्या आदि.
3. टेनग्राम (Ten gram) :- इसका प्रयोग द्वि-विमीय आकृतियों को पहचानने में किया जाता है. इसमे ज्यामितीय की कुल 7 आकृतियाँ, 5 त्रिभुज, एक वर्ग और एक समचतुर्भुज होता है.
4. जिओबाक्स (Geo-box) :- इसका प्रयोग गणित से सम्बंधित उपकरण रखने में किया जाता है.
जैसे : D-आकार स्केल, मुख्य पैमाना, गोला प्रकार आदि.
5. ग्राफ पेपर (Graph-paper) :- इसका प्रयोग द्वि-विमीय आकृतियों के क्षेत्रफल की तुलना करने में किया जाता है.
जैसे : किसी आयत और किसी वर्ग का क्षेत्रफल बराबर है या नहीं.
6. बिंदु-शीट (Dot-paper) :- इसका प्रयोग सममित और परावर्तन की अवधारणा को स्पष्ट करने में किया जाता है.
7. संख्या चार्ट (Grid-paper) :- इसका प्रयोग दशमलव संख्याओं को सही-सही लिखने में, दो या दो से अधिक दशमलव संख्याओं को की तुलना करने में, दशमलव संख्याओं में शून्य के स्थानीय मान की महत्ता को समझने में इसका प्रयोग किया जाता है.