‘समास’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है– संक्षिप्त करना। सम्+आस् = ‘सम्’ का अर्थ है– अच्छी तरह पास एवं ‘आस्’ का अर्थ है– बैठना या मिलना। अर्थात् दो शब्दों को पास–पास मिलाना।
समास
परस्पर मिले हुए शब्दों को समस्त–पद अर्थात् समास किया हुआ, या सामासिक शब्द कहते हैं।
जैसे– यथाशक्ति, त्रिभुवन, रामराज्य आदि।
समस्त पद के शब्दों (मिले हुए शब्दों) को अलग–अलग करने की प्रक्रिया को 'समास–विग्रह' कहते हैं।
जैसे– यथाशक्ति = शक्ति के अनुसार।
जिन दो मुख्य शब्दों के मेल से समास बनता है, उन शब्दों को खण्ड या अवयव या पद कहते हैं। समस्त पद या सामासिक पद का विग्रह करने पर समस्त पद के दो पद बन जाते हैं– पूर्व पद और उत्तर पद।
जैसे– घनश्याम में ‘घन’ पूर्व पद और ‘श्याम’ उत्तर पद है।
जैसे :
(i) तन-मन-धन
(ii) मन-कर्म-वचन
हिन्दी में समास के छः भेद प्रचलित हैं। जो निम्न प्रकार हैं –
*अव्यय शब्द वे हैं जिन पर काल, वचन, पुरुष, लिंग आदि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात् रूप परिवर्तन नहीं होता। ये शब्द जहाँ भी प्रयुक्त किये जाते हैं, वहाँ उसी रूप में ही रहेंगे।
जैसे– यथा, प्रति, आ, हर, बे, नि आदि।
पद के क्रिया विशेषण अव्यय की भांति प्रयोग होने पर अव्ययीभाव समास की निम्नांकित स्थितियां बन सकती हैं–
- 1. अव्यय+अव्यय–ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ, इधर-उधर, आस-पास, जैसे-तैसे, यथा-शक्ति, यत्र-तत्र।
- 2. अव्ययो की पुनरुक्ति– धीरे-धीरे, पास-पास, जैसे-जैसे।
- 3. संज्ञा+संज्ञा– नगर-डगर, गाँव-शहर, घर-द्वार।
- 4. संज्ञाओं की पुनरुक्ति– दिन-दिन, रात-रात, घर-घर, गाँव-गाँव, वन-वन।
- 5. संज्ञा+अव्यय– दिवसोपरान्त, क्रोध-वश।
- 6. विशेषण संज्ञा– प्रतिदिवस, यथा अवसर।
- 7. कृदन्त+कृदन्त– जाते-जाते, सोते-जागते।
- 8. अव्यय+विशेषण– भरसक, यथासम्भव।
अव्ययीभाव समास के उदाहरण:
पूर्व पद अव्यय :
- यथाशक्ति – शक्ति के अनुसार
- प्रतिक्षण – प्रत्येक क्षण
- भरपूर – पूरा भरा हुआ
- अत्यन्त – अन्त से अधिक
- रातोरात – रात ही रात में
- प्रत्युत्तर – उत्तर के बदले उत्तर
- मंद–मंद – मंद के बाद मंद, बहुत ही मंद
- प्रतिशत – प्रत्येक शत सौ पर
- प्रतिदिन – हर दिन
- हाथो हाथ – हाथ ही हाथ में
2. तत्पुरुष समास :– जिस समास में दूसरा पद अर्थ की दृष्टि से प्रधान हो, उसे तत्पुरुष समास कहते हैं। इस समास में पहला पद संज्ञा अथवा विशेषण होता है इसलिए वह दूसरे पद विशेष्य पर निर्भर करता है, अर्थात् दूसरा पद प्रधान होता है। तत्पुरुष समास का लिंग–वचन अंतिम पद के अनुसार ही होता है।
जैसे– जलधारा का विग्रह है– जल की धारा। ‘जल की धारा बह रही है’ इस वाक्य में ‘बह रही है’ का सम्बन्ध धारा से है जल से नहीं। धारा के कारण ‘बह रही’ क्रिया स्त्रीलिंग में है। यहाँ बाद वाले शब्द ‘धारा’ की प्रधानता है अतः यह तत्पुरुष समास है।
तत्पुरुष समास में प्रथम पद के साथ कर्त्ता और सम्बोधन कारको को छोड़कर अन्य कारक चिह्नो (विभक्तियो) का प्रायः लोप हो जाता है। अतः पहले पद में जिस कारक या विभक्ति का लोप होता है, उसी कारक या विभक्ति के नाम से इस समास का नामकरण होता है।
जैसे – द्वितीया या कर्मकारक तत्पुरुष = स्वर्गप्राप्त – स्वर्ग को प्राप्त।
कारक चिह्न इस प्रकार हैं –
1 - कर्ता – ने
2 - कर्म – को
3 - करण – से (के द्वारा)
4 - सम्प्रदान – के लिए
5 - अपादान – से (पृथक भाव में)
6 - सम्बन्ध – का, की, के, रा, री, रे
7 - अधिकरण – में, पर, ऊपर
8 - सम्बोधन – हे!, अरे! ओ!
चूँकि तत्पुरुष समास में कर्ता और संबोधन कारक–चिह्नो का लोप नहीं होता अतः इसमें इन दोनों के उदाहरण नहीं हैं। अन्य कारक चिह्नो के आधार पर तत्पुरुष समास के भेद इस प्रकार हैं –
1. कर्म तत्पुरुष –
- दुःखहर – दुःख को हरने वाला
- यशप्राप्त – यश को प्राप्त
- शरणागत – शरण को आया हुआ
- दिनकर – दिन को करने वाला
- कालातीत – काल को परे करके
- तुलसीकृत – तुलसी द्वारा कृत
- अकालपीड़ित – अकाल से पीड़ित
- श्रमसाध्य – श्रम से साध्य
- रेखांकित – रेखा से अंकित
- स्वयंसिद्ध – स्वयं से सिद्ध
- देशभक्ति – देश के लिए भक्ति
- यज्ञशाला – यज्ञ के लिए शाला
- शपथपत्र – शपथ के लिए पत्र
- युद्धभूमि – युद्ध के लिए भूमि
- बलिपशु – बलि के लिए पशु
- रोगमुक्त – रोग से मुक्त
- लोकभय – लोक से भय
- राजद्रोह – राज से द्रोह
- नरकभय – नरक से भय
- भाग्यहीन – भाग्य से हीन
- देवदास – देव का दास
- राष्ट्रपति – राष्ट्र का पति
- सूर्योदय – सूर्य का उदय
- राजपुत्र – राजा का पुत्र
- भूकंप – भू का कम्पन
- ग्रामवास – ग्राम में वास
- आपबीती – आप पर बीती
- शोकमग्न – शोक में मग्न
- जलमग्न – जल में मग्न
- आत्मनिर्भर – आत्म पर निर्भर
तत्पुरुष समास के उपभेद –
I. नञ् तत्पुरुष – इस समास में द्वितीय पद प्रधान होता है किन्तु प्रथम पद संस्कृत के नकारात्मक अर्थ को देने वाले ‘अ’ और ‘अन्’ उपसर्ग से युक्त होता है। इसमें निषेध अर्थ में ‘न’ के स्थान पर यदि बाद में व्यंजन वर्ण हो तो ‘अ’ तथा बाद में स्वर हो तो ‘न’ के स्थान पर ‘अन्’ हो जाता है।
- अनाथ – न (अ) नाथ
- अन्याय – न (अ) न्याय
- अनाचार – न (अन्) आचार
- अजन्मा – न जन्म लेने वाला
- निर्विवाद – बिना विवाद के
3. द्वन्द्व समास :– जिस समस्त पद में दोनों अथवा सभी पद प्रधान हो तथा उनके बीच में समुच्चयबोधक–‘और, या, अथवा, आदि’ का लोप हो गया हो, तो वहाँ द्वन्द्व समास होता है।
(i) इतरेतर द्वंद्व :- समास विग्रह में ‘और’ का प्रयोग किया जाता है.
- अन्नजल – अन्न और जल
- देश–विदेश – देश और विदेश
- राम–लक्ष्मण – राम और लक्ष्मण
- पच्चीस – पांच और बीस
- बावन – दो और पचास
(ii) विकल्पात्मक द्वंद्व :- समास विग्रह में ‘या’ का प्रयोग किया जाता है.
- राग–द्वेष – राग या द्वेष
- एक–दो – एक या दो
- दस–बारह – दस या बारह
- लाख–दो–लाख – लाख या दो लाख
- पल–दो–पल – पल या दो पल
(iii) समाहार द्वंद्व :- ‘इत्यादि/आदि’ का प्रयोग समास विग्रह में होता है.
- हाथ–पाँव – हाथ, पाँव आदि
- रुपया–पैसा – रुपया, पैसा आदि
- आहार–निद्रा – आहार, निद्रा आदि
- जलवायु – जल, वायु आदि
4. बहुव्रीहि समास :– जिस समस्त पद में कोई भी पद प्रधान नहीं हो, अर्थात् समास किये गये दोनों पदों का शाब्दिक अर्थ छोड़कर तीसरा अर्थ या अन्य अर्थ लिया जावे, उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं।
जैसे – 'लम्बोदर' का सामान्य अर्थ है– लम्बे उदर (पेट) वाला, परन्तु लम्बोदर सामास में अन्य अर्थ होगा – लम्बा है उदर जिसका वह - गणेश।
- उनतीस – एक कम तीस
- उनसठ – एक कम साठ
- उनतालीस – एक कम चालीस
- अजानुबाहु – जानुओं (घुटनों) तक बाहुए हैं जिसकी वह - विष्णु
- पंचानन – पाँच है आनन (मुँह) जिसके वह - शिव
- वाग्देवी – वह जो वाक् (भाषा) की देवी है - सरस्वती
- विषधर – विष को धारण करने वाला - साँप
5. कर्मधारय समास :– जिस समास में उत्तरपद प्रधान हो तथा पहला पद विशेषण अथवा उपमान (जिसके द्वारा उपमा दी जाए) हो और दूसरा पद विशेष्य अथवा उपमेय (जिसके द्वारा तुलना की जाए) हो, उसे कर्मधारय समास कहते हैं।
इस समास के दो रूप हैं–
(i) विशेषता वाचक कर्मधारय– इसमें प्रथम पद द्वितीय पद की विशेषता बताता है।
- महापुरुष – महान् है जो पुरुष
- नीलाकाश – नीला है जो आकाश
- महाकवि – महान् है जो कवि
- कमलनयन – कमल के समान नयन
- मृगनयनी – मृग के समान नयनों वाली
- चरणकमल – कमल रूपी चरण
- अमृतवाणी – अमृत रूपी वाणी
6. द्विगु समास :– जिस समस्त पद में पूर्व पद संख्यावाचक हो और पूरा पद समाहार (समूह) या समुदाय का बोध कराए उसे द्विगु समास कहते हैं। संस्कृत व्याकरण के अनुसार इसे कर्मधारय का ही एक भेद माना जाता है। इसमें पूर्व पद संख्यावाचक विशेषण तथा उत्तर पद संज्ञा होता है। स्वयं 'द्विगु' में भी द्विगु समास है।
- चौराहा – चार राहो का समाहार
- पंचवटी – पाँच वटो (वृक्षो) का समूह
- नवरत्न – नौ रत्नो का समाहार
- त्रिशूल – तीन शूलो का समाहार
- सतसई – सात सई (सौ) (पदों) का समूह
- एकांकी – एक अंक है जिसका
- इकलौता – एक है जो