शिक्षण की विभिन्न विधियाँ :पारंपरिक विधि,पाठ्यपुस्तक विधि,सुगम पद्धति या निर्बाध विधि,व्याकरण अनुवाद विधि,वार्तालाप/संवाद/सम्प्रेषणात्मक विधि,आगमन-निगमन विधि.
संस्कृत - शिक्षण
संस्कृत भाषा शिक्षण के लक्ष्य :
- 1.ज्ञानात्मक
- 2. कौशालात्मक
- 3. रसात्मक
- 4. सृजनात्मक
- 5. अभिवृत्यात्मक
1.ज्ञानात्मक लक्ष्य :- प्रायः निम्नलिखित बातें ज्ञानात्मक लक्ष्य के अंतर्गत आते है-
i. ध्वनि, शब्द एवं वाक्य रचना का ज्ञान देना.
ii. सांस्कृतिक, पौराणिक, गाथाओं आदि की जानकारी देना.
2. कौशालात्मक :- कौशालात्मक उद्देश्यों के अंतर्गत प्रायः निम्नलिखित बातें आती है- सुनकर अर्थ ग्रहण करना, शुद्ध एवं स्पष्ट वाचन करना, गद्य-पद्य पढ़कर अर्थ ग्रहण करना इत्यादि.
3. रसात्मक :- इस लक्ष्य में दो वस्तुएं समाहित है- साहित्य का रसास्वादन, साहित्य की सामान्य समालोचना.
4. सृजनात्मक :- सृजनात्मक लक्ष्य का तात्पर्य है छात्रों को साहित्य-सृजन की प्रेरणा देना। उनमे रचना में मौलिकता लाने की योग्यता का विकास करने के लिए प्रेरित करना. इस कार्य के लिए निबंध, कहानी, संवाद, पत्र , उपन्यास एवं कविता को माध्यम बनाया जा सकता है.
5. अभिवृत्यात्मक :- इस लक्ष्य का तात्पर्य यह है की छात्रो में उपयुक्त दृष्टिकोण एवं अभिवृत्तियों का विकास किया जाये.
प्राथिमक स्तर (Class 1-5) पर संस्कृत शिक्षण के उद्देश्य :
पूर्व माध्यमिक स्तर (Class 6-8) पर संस्कृत शिक्षण के उद्देश्य :
इस स्तर के छात्र किशोरावस्था में पदार्पण करने की तैयारी में रहते है. जहाँ पर मानसिक दृष्टि से उसके मन में बड़ी उथल-पुथल मची रहती है. जहाँ पर उन्हें उपयुक्त आदर्शो की आवश्यकता भी पड़ती है. संस्कृत साहित्य ऐसे आदर्शो से भरा पड़ा है. अतः छात्रो को उचित प्रेरणा दी जा सकती है.
1. छात्रों को इस योग्य बनाना की वे संस्कृत भाषा में लिखे हुए सरल गद्य-खण्डों को शुद्ध-शुद्ध पढ़ सकें.
2. उन्हें इस योग्य बनाना की वे सरल संस्कृत श्लोकों का शुद्ध उच्चारण करते हुए पाठ कर सकें.
3. उन्हें इस योग्य बनाना की वे मातृभाषा के सरल वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद कर सके.
4. संस्कृत के सरल गद्य-खण्डो एवं सरल श्लोको को समझने की योग्यता प्रदान करना.
माध्यमिक स्तर (Class 9-10) पर संस्कृत शिक्षण के उद्देश्य :
1. संस्कृत के सरल ही नहीं, कठिन गद्य-खण्डों को उचित विराम एवं शुद्ध उच्चारण के साथ पढ़ने की क्षमता प्रदान करना.
2. संस्कृत के सरल साहित्य से छात्रों को परिचित कराया जाए जिससे वे संस्कृत साहित्य के आनंद की अनुभूति कर सकें।
3. संस्कृत के महत्वपूर्ण श्लोको को कंठस्थ करने की प्ररेणा देना.
4. मातृभाषा के सरल अनुच्छेदों एवं सामान्य वाक्यों को संस्कृत में अनुदित करने की योग्यता प्रदान करना.
5. यदि संभव हो तो संस्कृत में कुछ सरल वाक्यों में बोलने की क्षमता प्रदान करना.
6. इस स्तर पर छात्रो को संस्कृत साहित्य का परिचय देना चाहिए.
संस्कृत शिक्षण की विभिन्न विधियाँ :
1. पारंपरिक विधि
2. पाठ्यपुस्तक विधि
3. सुगम पद्धति या निर्बाध विधि
4. व्याकरण अनुवाद विधि
5. वार्तालाप/संवाद/सम्प्रेषणात्मक विधि
6. आगमन-निगमन विधि
1. पारंपरिक विधि :- गुरुकुल में संस्कृत शिक्षण के लिए प्रयोग में लायी जाने वाली विधियों के समूह को वर्त्तमान परिदृश्य में संस्कृत शिक्षण की पारंपरिक विधि की संज्ञा दी जाती है.
उनमे से कुछ विधियाँ निम्न है-
i. मौखिक एवं व्यक्तिगत शिक्षण पद्धति : इस विधि में गुरु पहले वेद मंत्रो का उच्चारण करते थे तथा शिष्य उनका अनुकरण करते थे.
ii. वाद-विवाद विधि : इस विधि में पढ़ाये जाने वाले पाठ के पक्ष तथा विपक्ष में बातें कही जाती थी, तर्क दिए जाते थे तथा उदहारण प्रस्तुत किये जाते थे. और इस तरह प्रस्तावित विषय पर प्रकाश डाला जाता था.
iii. प्रश्नोत्तर विधि : इस विधि में पाठ को प्रश्नोत्तर के रूप में पढाया जाता था. प्रत्येक प्रश्न में दो या तीन पद्य होते थे तथा प्रत्येक व्याख्यान में 60 प्रश्न होते थे. प्रत्येक प्रश्न के बाद विद्यार्थी उसे दोहराता था इस प्रकार क्रमिक रूप से सम्पूर्ण व्याख्यान समाप्त हो जाता था.
iv. सूत्र पद्धति : गंभीर तथ्यों को सूत्र रूप में बताना ही सूत्र कहलाता है. व्याकरण एवं दर्शन के गंभीर तथ्यों को सूत्र विधि से पढाया जाता था यथा- “अकुहविसर्जनियकंठः”
v. कहानी कथन विधि : इस विधि में कथा के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी. यह बाल मनोविज्ञान पर आधारित थी. इस माध्यम से छात्रो को नैतिक शिक्षा दी जाती थी.
vi. भाषण विधि : इस विधि में गुरु प्रस्तावित पाठ पर भाषण देता था। भाषण के अंत में विद्यार्थी अपने शंकाओं को गुरु के समक्ष रखते थे और गुरु उन समस्याओं का समाधान करते थे.
2. पाठ्यपुस्तक विधि :- इस विधि में सर्वप्रथम विद्यार्थी के परिवेश तथा उसकी कक्षा के अनुकूल विषय सामग्री और शब्दावली का वर्गीकरण कर उसे पाठ्यपुस्तक के रूप में विकसित किया जाता है. विषयवस्तु के रूप में क्रमशः वर्णमाला, शब्द, वाक्य, अनुच्छेद आदि का ज्ञान कराया जाता है. इस विधि में पहले शिक्षा द्वारा पाठ का आदर्श संस्कृत वाचन किया जाता है इसके पश्चात् छात्र द्वारा पाठ का अनुकरण वाचन किया जाता है.
3. सुगम पद्धति या निर्बाध विधि :- इस विधि से शिक्षण कार्य करते समय किसी अन्य भाषा का सहारा नहीं लिया जाता है. छात्र को संस्कृत भाषा में ही सिखना होता है और अपने भावो की अभिव्यक्ति संस्कृत भाषा में ही करनी होती है जिससे संस्कृत में उनका पूरा अधिकार हो जाये और छात्र संस्कृत भाषा में भी अपनी मातृभाषा जितना ही दक्ष हो जाये. इस विधि में शिक्षक छात्र से प्रश्न पूछता है और छात्र उसका उत्तर देते है.
4. व्याकरण अनुवाद विधि :- इस विधि से शिक्षण करने की लिए व्याकरण एवं अनुवाद पद्धति का सहारा लिया जाता है. जिस भाषा का शिक्षण करना होता है उस भाषा के व्याकरण का प्रयोग किया जाता है. अनुवाद में दो भाषाओँ की आवश्यकता होती है. एक को स्रोत भाषा कहते है तथा दूसरे को लक्ष्य भाषा. जिस भाषा के पाठ का अनुवाद किया जाता है उसे स्रोत भाषा एवं जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है उसे लक्ष्य भाषा कहते है. संस्कृत भाषा के सन्दर्भ में संस्कृत व्याकरण की सहायता ली जाती है. संस्कृत भाषा से मातृभाषा तथा मातृभाषा से संस्कृत में अनुवाद किया जाता है.
5. वार्तालाप/संवाद विधि :- इस विधि में दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य संवाद के माध्यम से शिक्षा दी जाती है. पाठ को वार्तालाप के रूप में तैयार किया जाता है. छात्र उसका अध्ययन करते है तथा उसका अभिनय करते है. इस प्रकार छात्र उस भाषा में अपने भावो की अभिव्यक्ति करना सिख लेते है, तथा विभिन्न अवसरों पर बोली जाने वाली भाषा के प्रयोग में दक्षता प्राप्त कर लेते है.
6. आगमन-निगमन विधि :- आगमन विधि में पहले उदाहरणों को बताया जाता है फिर उससे सम्बंधित व्याकरण के नियमो की दीक्षा दी जाती है. इसके विपरीत निगमन विधि में पहले व्याकरण के नियमो को बताया जाता है फिर उससे सम्बंधित उदहारण दिए जाते है और उन नियमो का अभ्यास कराया जाता है.